आधुनिक दुनिया एक अनोखी दुनिया है, जो खुद में इंतना उल्झिहुई है की क्या कहना! हर ब्यक्ति भागम भाग में लगा हुआ है, एक अंतहीन अंधी दौड़ में जिसका कोई ओर और चोअर नहीं है! दौड़ता भी है तो कीस लिए उसे खुद भी पता नहीं! उसकी दौड़ की रफतार भी बहुत अच्छी है, लेकिन बेलगाम, खुद नहीं जनता की अगले पल क्या होने वाला है! हर ब्याकती धन, प्रतिष्टा और आडम्बर तथा दिखावे के लिए दौड़ता है! फीर भी, वह सदा ही अशंतुष्ट ही रहता है!
आज मनुष्य की स्थिति कुछ कुछ आदी काल के देवों सी हो गई है! जो सक्तियाँ उसने हाशिल की हैं, वो अति विलक्षण है; अब तो उसे अपने आप पर नियंत्रण रखने की jaruरत है.वो भी भूधी के जरिये . क्योंकि मैंने पाया है की वह आपा धापी में अपने मूल स्वरुप को ही खो बैठा है. उसकी मूल प्रवृति जैसे मानवता, सहिर्दयता, प्रेम, समर्पण, लगाव, सम्मान, आदि का तो लोप सा होगया है.जो की उसकी मूल आवश्यकता है. उनके बिनना वह ना तो मनुष्य है और नहीं मनुष्य कहलाने के योग्य.
मैंने देखा है की लोग सफल होअने के बाद भी लग्गातर परेशां से नजर आते है. उनकी आत्मा उनसे रूठी रूठी सी लगती है. वन्ही, पुराने समय में लोग कम धन और सफलौं के भी सदैव सुखी ही नजर आते थे. अब यह हमें निर्धारित करना है की हमें हमारे लिए , औरो के लिए, समाज के लिए और समय के लिए तथा भविष्य के लिए क्या चुनना है. धन्यबाद.
आज मनुष्य की स्थिति कुछ कुछ आदी काल के देवों सी हो गई है! जो सक्तियाँ उसने हाशिल की हैं, वो अति विलक्षण है; अब तो उसे अपने आप पर नियंत्रण रखने की jaruरत है.वो भी भूधी के जरिये . क्योंकि मैंने पाया है की वह आपा धापी में अपने मूल स्वरुप को ही खो बैठा है. उसकी मूल प्रवृति जैसे मानवता, सहिर्दयता, प्रेम, समर्पण, लगाव, सम्मान, आदि का तो लोप सा होगया है.जो की उसकी मूल आवश्यकता है. उनके बिनना वह ना तो मनुष्य है और नहीं मनुष्य कहलाने के योग्य.
मैंने देखा है की लोग सफल होअने के बाद भी लग्गातर परेशां से नजर आते है. उनकी आत्मा उनसे रूठी रूठी सी लगती है. वन्ही, पुराने समय में लोग कम धन और सफलौं के भी सदैव सुखी ही नजर आते थे. अब यह हमें निर्धारित करना है की हमें हमारे लिए , औरो के लिए, समाज के लिए और समय के लिए तथा भविष्य के लिए क्या चुनना है. धन्यबाद.
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